मुझे “समृद्ध भारत - शाश्वत विकास की नव-नवीन दृष्टि” इस विषयपर लिखने को कहा गया, अर्थात् यह इस लेख का “प्रमुख प्रतिपाद्य विषय” है।प्रथमत: लेख के विषय में के नामांतर्गत पदौंसें “योगिक अर्थ” क्या होता है। वह देख लेंगे याने लेख के नामांतर्गत पदों का प्रथमोपस्थित अर्थ क्या होता है, वा क्या है। वह देखेंगे --
१) “समृद्ध” इस पद के ‘भरभराट’ को आया हुआ, ‘संपन्न’, ‘मालदार’ ऐसे अर्थ होते है।
२) भारत इस पद में ‘भा’ + ‘रत’ मिलकर - संयुक्त होकर, ‘भारत’ यह पद सिद्ध होता है।उसमें भी ‘भा’ याने कांति, तेज़, शोभा, किरण ऐसे इतने अर्थ होते है।वैसे ही ‘भा’ याने ‘आभा’, ‘प्रभा’ और ‘ज्ञान’ ऐसे अर्थ होते है।“तत्र रत: भारत:” उस ज्ञान में रत याने रममाण होता है। वह ‘भारत’ ऐसा अर्थ होता है। ‘भा’ याने प्रभा, कीर्ति, प्रकाश, प्रभाकर, सूर्य ऐसे भी अनेक अर्थ होते है। उसमें‘आभा’ऐसा भी एक अर्थ है। ‘आ’ याने “आ - समंतात्”, ‘भा’ याने ‘ज्ञान’ ‘आऽऽसमंतात्’ ऐसा ‘ज्ञान’ याने ‘आभा’ अर्थात् ‘आऽऽसमंतात् ज्ञानम्’ और “तत्र रत:” उस ज्ञान में रममाण होता है। वह ‘भारत’ है।एकंदर कथित विवेचन परसे ‘भा’ याने ‘आभा’ “आसमंतात् ज्ञानम्” या ‘ज्ञान’ और “तत्र रत:” याने ‘रममाण’ होता है। वह ‘भारत’ है।
अब, “शाश्वत विकास की नव-नवीन दृष्टि” यह उस नामांतर्गत पदौं - का “योगिक अर्थ” दृष्टिसे विचार करेंगे --
‘शाश्वत’ = इस पद के “नित्य, निरंतर, स्थायी” इत्यादि अर्थ होते है। उसमें ‘नित्य’ याने “सत्य, अविनाशी, अबाधित” ऐसे उसके अर्थ होते है।उन्हों में से ‘नित्य’ में मुख्य-प्रधान ऐसे दो प्रकार होते है।एक (१) “परिणामी-नित्य” और दूसरा (२) “कूटस्थ-नित्य” है।
१) पृथ्वी, आप, तेज़, वायु और आकाश यह, पंचमहाभूताएँ भी “परिणामी-नित्य” है। और “सर्वाधिष्ठान परब्रह्म, परमात्मा - श्रीहरी” यह एकमेव “कूटस्थ-नित्य” है। उस विषय में श्रुति कहती है --
“सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म ।।”
‘ब्रह्म’ यह सत्य, ज्ञानस्वरूप और अनंत याने “देश-कल-वस्तु” इस त्रिविध परिछेदोंसे रहित है। वही एकमेव सचमुच सत्य अर्थ से ‘शाश्वत’ है।
‘नित्य’ वैसे ही “निरतिशय-नित्य” है। “नास्ति अतिशयो यस्मात् स निरतिशय:” अर्थात् जिसके अपेक्षासे यत्किंचितभी अतिशय नही वह सत्यत: ‘निरतिशय’ है। परब्रह्म - परमात्मा ही वैसा “निरतिशय-शाश्वत” है। इस विषय में जगद्गुरु श्री तुकाराम महाराज कहते है। --
“तुजवीण काही ।स्थिर राहें ऐसे नाही ।।”
अर्थात् हे देव! तुझबिना “चिर-स्थिर” रहता है। अर्थात् शाश्वत रहेगा - रहनेवाला ऐसा दूसरा यत्किंचितभी पदार्थ नहीं है। आकलन, पृथक्करण और तत्पूर्वक अंतिम सत्य की ‘शाश्वत’ की समक्षता सम्पादन करने की ‘शक्ति’ और “विवेक-शक्ति” याने ‘सत्यासत्य’ की “शाश्वत-अशाश्वत” की पृथक्करण शक्ति, यह एक मानवी जीवन में का अलग और विलक्षणपन का अनन्य-साधारण विशेष है।
‘विवेक’ यह शब्द ‘विच्’ धातु से साधित है। उसका “पृथक्करण करने की अंत:करण की एक विलक्षण शक्ति”, ऐसा अर्थ होता है। अर्थात् “नित्य-अनित्य, भला-बुरा, सत्य-असत्य, धर्म-अधर्म, सत्य-अनृत इन्हों का पृथक्करण” और चयन करने की जो बुद्धि कि एक विलक्षण शक्ति, उसे ‘विवेक’ कहते है।
आत्मस्वरूप के स्वसंवेद्य - आत्मस्वरूप के प्रमा ज्ञान को - अचूक ज्ञान को, याने ही “अध्यात्म-विद्या” का ‘अधिकारी’ होने की, बनने की बिलकुल प्रथम-प्रथमही और अगले वैराग्य, तीव्र ब्रह्म-जिज्ञासा, अनन्यभक्ति इत्यादि सभी साधनों को मूलत: नीव-स्वरूप होने वाली, अत्यंत आवश्यक बात याने ही “नित्या-नित्य वस्तु विवेक” ही है। उसमें भी ‘नित्य’ याने “कूटस्थ-नित्य” याने “त्रिकालाबाधित-शाश्वत” और अनित्य याने ‘क्षणविनाशी’, ‘मिथ्थ्या’ इन्हों में का “भेद-समझना”-“भेदज्ञान होना”, इन्हों का अचूक पृथक्करण - चयन करनेके, उन्हों में से सत्य और मिथ्थ्या, अनित्य इस रूपने ‘भेदज्ञान’ होना “उसे और उसे ही”, ‘विवेक’ या ‘विचार’ कहते है। इसी को ही “सारासार-विचार” कहते है। सम्पूर्ण “अध्यात्म-विद्या” ही ‘विवेकाधिष्ठित’ याने ही ‘विवेक’ के प्रगाढ़ नींव पर खड़ी है।
अब, इन समस्तोंका ‘क्रम’ से ही कथन करना होगा तो__ एक(१) प्रथम अंत:करण वृत्तिसे किसी भी ‘वस्तु’ का ‘आकलन’ होता है। “आकलन शक्ति” याने किसी भी वस्तु के साङ्गोपाङ्ग ज्ञान को अथवा वस्तुस्वरूप, कारण और कार्य, इन तीनों का ज्ञान होना उसको “संपूर्ण-आकलन” होना, उसे “आकलन-शक्ति” कहते है। जैसे एक ‘घट’, यह पदार्थ लिया, तो घट के ‘कंबूग्रीवादीमान’ आकार का - ‘स्वरूप’ का, उसके नील पीत आदि रूप का तथा उस ‘घट’ को ‘कारणीभूत’ ऐसे ‘मृतिका’ का और घट के जलग्रहणरूपी ‘कार्य’ का ज्ञान होना, इसे घट का “संपूर्ण-आकलन” हुआ ऐसा कह सकते है।
आकलन शक्ति से संपादित किए हुए पदार्थ के ज्ञान का ‘सत्य’ और ‘असत्य’ रूप से पृथक्करण पूर्वक ‘भेदज्ञान’ होना, संपादन करना - याने अंतःकरण की ‘विवेकशक्ति’ है। उसमें से ‘असत्य’ का त्याग करके ‘सद्-वस्तु’ को, ‘सत्य’ को धारण करने वाली उसी अंत:करण की विलक्षण शक्ति, याने ही ‘श्रद्धा’ है।
‘श्रद्धा’ यह पद ‘श्रत्’ + ‘धा’ = ‘श्रद्धा’ ऐसा सिद्ध हुआ है। ‘श्रत्’ यह ‘सत्’ इसका वैदिक स्वरूप है। ‘श्रत्’ को धारण करने वाली अंतःकरण की जो विलक्षण ऐसी शक्ति है। उसे ‘श्रद्धा’ कहते है। अर्थात्, ‘सत्’ को धारण करने वाली ऐसी अंत:करण की जो वृत्ति है। उसे ही ‘श्रद्धा’ कहते है। यह ‘श्रद्धा’ शब्द की व्याकरणदृष्टया ‘सिद्धि’ अथवा “मूल-व्युत्पत्ति” है। यह ‘श्रद्धा’ शब्द् की व्युत्पत्ति अगर ध्यान में लेते है तो, ‘अंधश्रद्धा’ यह शब्द तो ‘वदतोव्याघातदोषग्रस्त’ है। अर्थात् ‘सत्’ को ‘सत्य’ को धारण करने वाली वृति ही अंग से ही ‘दर्शी’ होती है। याने ‘सत्य’ को धारण करना यही दर्शीपण का व्यवछेदक लक्षण है। ‘अदर्शी’ वृत्ति, ‘सत्य’ को धारण ही नहीं कर सकती। सत्य को देखना उसे शक्य ही नहीं होता। ‘दर्शी’ वृत्ति ही ‘सत्य’ को धारण कर सकती है। इसलिए ‘सत्य’ को धारण करने वाली अंत:करण ‘शक्ति’रूप ‘वृत्ति’ याने ही ‘श्रद्धा’ है।
‘श्रद्धा’ यह “विचार-क्षेत्र” में ‘सत्य’ के समक्षता में याने ‘सत्य’ के साक्षात्कार में पर्यवसित होती है; और “आचार-क्षेत्र” में ‘सत्कृति’, ‘सदाचार’ इन्हीं में पर्यवसित होती है। अर्थात् ‘श्रद्धा’ यह उपर्युक्त “उभय-क्षेत्र” में पर्यवसित होने के लिए “सात्विक-धृति” सहायक होना आवश्यक होता है। “तब और तब ही” “धृत्युत्साह-समन्वित” “सात्विक कर्ता होता है। उसमें एक(१) शाश्वत विकास की आकलन विवेकयुक्त जीवनात्मक, ऐसे “प्रथम और प्रथमही” “विचार जीवन” है। उपर्युक्त विशुद्ध सात्विक श्रद्धा-संपन्न पहला जीवन है। दूसरा(२) “भाव-जीवन” है। और उपर्युक्त “धृत्युत्साह-समन्वित” शक्ति संपन्न जीवन है; यह तीसरा(३) “आचार-जीवन” है।
इसमें उपर्युक्त ‘विवेक’ यह ही उपनिषदों ने मानव को दी हुई महान देन है। इस विवेक का महत्व कठोपनिषद में नचिकेता के कथा में प्रतिपादन किया है। अर्थात्, मानव का देहगत प्राण हुआ “तो और तो भी” उसका आत्मा देह के साथ निवृत्त होता है क्या? देह गया “तो और तो भी” आत्मा रहता है क्या? होता है क्या? इस प्रश्न् का उत्तर नचिकेता को यम के द्वारा चाहिए था। तब उसकी परीक्षा देखने के लिए यम ने उसके युवावस्था के अनुरूप, ऐसे अनेकविध अस्पर्शित, अचुंबित और ‘भोग’ देने का प्रस्ताव रखा; और “मृत्यु का गूढ़ मुझे ना पूछिएगा!” ऐसा कथन किया। परंतु नचिकेता उस विलोभनिय अमीषों को लोभित हुआ नहीं और “सर्वेंद्रियों का तेज नष्ट करने वाले ‘भोग’ मुझे नहीं चाहिए, किंतु मुझे मृत्यु का गूढ़ रहस्य कथन कीजिएगा!” ऐसा जब वह नचिकेता यम को कहने लगा, तब यह “गूढ़-रहस्य” कहने के लिए नचिकेता यह उचित योग्य है, ऐसा यम को महसूस हुआ; और वह कहने लगा --
श्रेयश्च प्रेयश्च मनुष्यमेतस्तौसंपरीत्य विविनक्ति धीर:।
श्रेयो हि धीरोsभि प्रेयसो वृणीते प्रेयो मन्दो योगक्षेत्रात् वृणीते ।। कठो २-२ ।।
इसमें का भाव-आशय ऐसा है कि, ‘श्रेय’ याने मानव के अंतिम, नित्य-निरतिशय ‘हित’ साधनेवाली, अथवा शाश्वत कल्याणकारक बात और ‘प्रेय’ याने मानव को तात्कालिक सुख देने वाली बात है। “श्रेय और प्रेय” यह दोनों बातें परस्परों में मिश्रित होकर मानव के सामने आती है। इस पर श्रीमदाद्य शंकराचार्य भाष्य करते है। वह ऐसा है --
“हंस इव अम्भसो पय: तौ श्रेय: प्रेय पदाथौ संपरीत्य, सम्यक्
परिगम्य मनसालोच्य, गुरुलाघवं विविनक्ति पृथक्करोति, धीरो-धीमान्”
‘धीर:’ याने बुद्धिमान् याने विवेकी मनुष्य जिस प्रमाण ‘हंस’ यह “जल में से दुग्ध”, यह अलग करने के लिए समर्थ होता है। और जल से दुग्ध यह अलग करके निकालता है। उस प्रमाण ‘श्रेय और प्रेय’ इन्हों के नित्यानित्य का, श्रेष्ठ-कनिष्ठता का उचित पृथक्करण करके श्रेयस्कर बातों का अंगीकार करता है और “मंद: अल्प बुद्धि ‘सद् -सद् विवेक सामर्थ्यात् ____ प्रेय: पशुपुत्रादि लक्षणम् वृणीते” अर्थात् भलेबुरे के पृथक्करण करने में असमर्थ होने वाला मंदप्रज्ञ-पुरुष तात्कालिक सुख देने वाले बातों का ही अंगीकार करता है।
सारांश, समस्त ही विद्याओं में “अध्यात्म-विद्या” श्रेष्ठ है। अर्थात्, “अध्यात्म-विद्या विद्यानां” ऐसी यह “अध्यात्म-विद्या”, “ब्रह्म-विद्या” भगवत् विभूति होकर भी “अध्यात्म-विद्या” ही मानवी जीवन की पहेली हल करती है। इसलिए मानव को स्वसंवेद्य आत्मस्वरूप की जान, पहचान कर देकर, कर्तव्याकर्तव्यता के विषय का, धर्माधर्म विषय का, प्रमाण-प्रमेय विषयक सर्वही संदेह निवृत्त करके, अभय संपन्नता से सात्विक धृत्युत्साहसमन्वित करके, ‘स्व कर्तव्याचरण’ में प्रवृत्त करती है। इसी लिए उपनिषद में “गव्हर-गुप्त” होनेवाली “ब्रह्म-विद्या” ही भगवंतजी ने “श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद् में व्यक्त की है। इसी हेतुस्तव श्री ज्ञानेश्वर महाराजजी ने भी इस गीतोपनिषद् पर मराठी भाषा में एक “नित्य-नूतन” - “वार्तिक” ही लिखकर भवोन्मेष प्रकट करके “ब्रह्मा-विद्या” का सुकाल किया है। याने प्रतिपाद्य विषय की प्रमाण, युक्ति और अपने प्रमात्मक-स्वानुभव ने सुस्पष्टता, सुगमता की है। ऐसा इसका भाव गुढ़ आशय है।
इस लेख के शीर्षक में “विकास की”, ऐसा आगे का शब्द है। उसके संबंध में कुछसा- काहींसा विचार करेंगे। उसमें भी वेदांत शास्त्र जिज्ञासुओंको चिंतनीय विषय, ऐसे दो ही विषय है। उसके विषय में कुछसा-अल्पसा विचार प्रथमत: करेंगे और तत्पश्चात् ‘विकास’ इस विषय का विचार करेंगे। जिज्ञासुओंको “आध्यात्मिक-विचार” और “तत्व-विचार” यह दो विषय विचारणीय है। देहादिकोंसे लेकर आत्मस्वरूप पर्यंत के विचार को “आध्यात्मिक-विचार” कहते है। और पृथव्यादि पंचमहाभूतओंसे लेकर अधिष्ठान ब्रह्म पर्यंत के विचार को “तत्व-विचार” कहते है।
“अध्यात्म विचार में “मै कौन हूँ?” यह प्रधान विचार है”।इसकी वृद्धि और विस्तार बहुत है।उस वृद्धि विस्तार का संक्षिप्त सारांश ऐसा है की, १) “कूटस्थ चैतन्य”, २) ‘अंतःकरण’ और ३) “अंत:करण में का कूटस्थ-चैतन्य का आभास”, यह तीन मिलकर “जीव-चैतन्य” है।वैसे ही ‘ब्रह्मचैतन्य’, उसके आश्रित होनेवाली माया और उस माया में का ‘ब्रह्मचैतन्य’ का आभास, यह तीन मिलकर “ईश्वर-चैतन्य” है।यह जीवेश्वर स्वरुपाएँ अनुक्रमत: “आत्मा-कूटस्थ” और ‘ब्रह्मचैतन्य’, इन्हों पर अध्यस्त है। इसलिए ‘आत्मा’ और ‘ब्रह्म’, यह दोनों चैतन्याये क्रमशः ‘जीव’ और ‘ईश्वर’ इन्होंके अधिष्ठानभूत है। उपाधिकृत ‘जीव’, और ‘ईश्वर’, इन्हों का भेद और उसकी प्रतीति कल्पित होने हेतु, अधिष्ठानभूत “आत्मा और ईश्वराधिष्ठानभूत ब्रह्म” यह दोनों चैतन्याएँ तत्वतः वास्तव स्वरूपसे एक ‘ही’ है। वाच्यार्थ में “भेद प्रतीत” होता हों “तो और तो भी” भागत्याग लक्षणा से इन्होंके लक्षार्थ में एकत्व ही है।इसलिए “अन्ततोगत्वा मै कौन हूँ?” इसका उत्तर “तूं सच्चिदानंद ब्रह्मस्वरूप है”, “यह और यह ही” है। यहाँ “अध्यात्म विचार” पूर्ण होता है।
अब “तत्व-विचार” का स्वरूप देखेंगे --
पृथव्यादि पंचमहाभूंतोंसे लेकर अंततः अधिष्ठान ब्रह्म पर्यन्तके विचार को “तत्व-विचार” कहते है। इस उपर्युक्त व्याख्याओं प्रमाण, जगत-कारण-विचार यह “तत्व-विचारांतर्गत” ऐसा विचार है। यह विचार भी “तत्व-विचार” ही है।
‘जीव’ को कर्माचरण के बाबत में ‘स्वातंत्र्य’ हुआ “तो और तो भी”, उस “कर्म के फल” भोगने के बाबत में मात्र, “जीव-पूर्ण परतंत्र” है, स्वतः किये हुए कर्म का ‘फल’ उसे टालने नहीं आता।कर्तुत्व में - कर्माचरण करने के बाबत में, जीव के कर्तुत्व को भरपूर अवकाश है। “इसलिए और ऐसा है इसलिए हीं” ईशनिर्मित पंचमहाभूतोंसे यह जीव-मनुष्यजीव एकानेक भोगोपयोगी पदार्थ निर्माण करता है। इस भौतिक विज्ञानशास्त्र के सहाय्यसे “एकानेक द्रव्योंका पृथक्करण” करके और उन्होंका परसपरों में का ‘कार्यकारणभाव’ जान-बूझकर यंत्राएँ - महायंत्राएँ निर्माण करने के लिए आते है। परन्तु मनुष्य - जीव यह उन्होंमे के “मूलभूत द्रव्यों” की उत्पत्ति - निर्मिति नहीं कर सकता।पृथ्वी - आप - तेज - वायु और आकाश यह मूलभूत पंचमहाभूताएँ ईशनिर्मितही है। उन्हों की उत्पत्ति “मनुष्य-जीव” बिलकुल ही नहीं कर सकता।यह अनुपरोधस्वरूपनेही सिद्ध है। अर्थात् कुम्हार एकानेक प्रकारकी “घट-मठ” की सुरई तयार कर सकता है - करता है। परन्तु मूल ‘मृत्तिका’ तयार नहीं कर सकता।कोष्टी एकानेक प्रकारके ‘वस्त्र’ बुनके तयार करता है। परन्तु तत् मूल स्वरूप ‘कपास’ या उसका बीज-सरकी तयार कर सकता नहीं।उसी प्रकार मनुष्यजीव यह ईशनिर्मित पंचमहाभूताएँ कुछ थोड़ी वा बहुत भोगोपयोगी पदार्थ निर्माण कर सकता है; परंतु वह “मूल पंचमहाभूते” निर्माण कर सकता “नहीं तो नहीं ही”, नहीं-नहीं तो वह उसके लिए शक्य ही नहीं।
सिवाय मनुष्य जीव यह भी “जगदन्त-पाती” होने हेतु, “जगत-कारण वा जगत्-कर्ता” हो सकता नहीं।यह सहज ही लक्ष में आ जाएगा।उसी प्रमाण निसर्ग, काल, गृह, कल्पना, स्वभाव इन्हों में से कोई भी जगत का कारण संभवता नहीं।कारण, उन्हों में कोई ‘जड़’ है। तो कोई अल्पज्ञ-अल्पशक्तिमान है। इसलिए चेतन - सर्वज्ञ - सर्वशक्तिमान् परमेश्वर ही जगत-कारण है।
अब आधुनिक काल में विज्ञान शास्त्राएँ भी विचारतः अंत में जड़कारणवादी ही है। किंबहुना ! आधुनिक संशोधन ने लोगों का जड़ कारणवाद पर ही बहुत विश्वास बैठता हुआ दिखने में आता है। यंत्र-महायंत्र निर्माण के कार्य में यांत्रिक प्रगति इतनी भई है की, प्रस्तुत यंत्राएँ भी मनुष्य की जरूरतें भी बहुत ही तत्परता से पूरी करती है। और उस हेतु भीं लोगोंका ऐसा निश्चय हो रहा है की, जगत का अंतिम तत्व जड़ ही है। ऐसा होते जा रहा है। आज कल की यंत्र-महायंत्र सामुग्री याने विज्ञानने उनकी सतत, तत्पर और दीर्घकालिक तपश्चर्या से प्रसन्न हुया हुवा कुलदैवत ही है। की ‘पिशाच्च’ है? ऐसा संशय हो रहा है। कारण जैसे पिशाच्च अपने लहरी स्वभाव से मनुष्य को कभी प्रसन्न होकर परवरिश करता है,पास भी आने लगता है,कभी मनुष्य को गिलंकृत भी करता है। उसी प्रमाण कुछ यंत्राएँ महायंत्राएँ मनुष्य के सुखसुविधा की आवश्यकता बिलकुल तत्परता से पूरी करते है। तो कुछ अण्वस्त्रोंके सरीखे शोध संपूर्ण जगत को गिलंकृत करने के लिए भी कमी नहीं करेंगे, वा नहीं करते।ऐसी राक्षसी तथा असुरी-प्रवृति दिखने में आती है। उस हेतु यह यंत्राएँ-महायंत्राएँ याने मनुष्य को प्राप्त हुया हुवा शाप है, की वरदान है? यह समझमे आना - ज्ञात होना कठिन-महाकठिण है। यंत्राएँ-महायंत्राएँ यह बिलकुल अनुपयोगी ही है। ऐसा नहीं, तो उस यंत्रों-महायंत्रों की राक्षसी-आसुरी प्रवृति नष्ट होकर वह यंत्राएँ-महायंत्राएँ मानवों के आज्ञा में रहकर मानवों की जरूरतें बिलकुल तत्परता से पूरी करती हो, तो और तो ही वह कुलदेवता का वरदान ही है। ऐसे कहना संभवनिय ही है, यह खांस!
अब पूर्व में ‘विकास’ शब्द का विचार करेंगे ऐसा कहा था, परंतु वह विचार वहाँ किया नहीं तो वहां विकाससम्बन्धी १) विचार-जीवन, २) भाव-जीवन और ३) आचार-जीवन कथन किया।अब प्रथमत: ‘विकास’ शब्द का अल्प सा विचार करेंगे।तत्पश्चात्, इस लेख के शीर्षक में के नामों में से उर्वरित शब्दों का और उन्होंके अर्थों का विचार करेंगे --
‘विकास’ शब्द के उन्नति, प्रगति, वृद्धि, विकसित होना यह उत्क्रांति है। और इस सम अनेक अर्थ है। फिर भी उनमे से “बौद्धिक-विकास” और “हार्दिक-विकास”, ऐसे दो प्रधान प्रकार है। ईशनिर्मित मूलभूत तत्वोंका पृथक्क़रन करके “सूक्ष्म कार्य-कारण-भाव” जान लेकर उन्होंका “भोग समृद्धि” के लिए उपयोग करना याने “बौद्धिक-विकास” है। वैसे ही छब्बीस सद्गुणसंपन्न ऐसी “दैवी-संपत्ति” संपन्न होना याने “हार्दिक-विकास” है। श्री भगवंतजी ने श्रीमद्भगवदगीता के सोलहवें अध्याय में पहले तीन श्लोकोंमे वह “दैवी-संपत्ति” कथन की है। उन्हों का संक्षेपतः विचार कथन करता हूँ --
अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः।
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम्॥१६.१॥
अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम्॥१६.२॥
तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहोनातिमानिता।
भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत॥१६.३॥
इन तीनो श्लोकोंका भावार्थ ऐसा है की, भगवान् कहते है --
हे भारत! दैवी-संपत्ति को लेकर ही जन्म को आये हुए पुरुषों में निर्भयता, अंत:करण की निर्मलता, ज्ञान और योग इन्हों में निष्ठां, अभय, चित्तशुद्धि, ज्ञान और योग, इन्हो में तत्परता, दान, दम, यज्ञ, स्वाध्याय, तप, अंत:करण की सरलता (१६-१) अहिंसा, सत्य, क्रोध न होना, त्याग, शांति, एकाद के पश्चात् उन्हों के दोष स्पष्ट न करना, दुःखी जीवोंके विषय में दया, अलोलुपता, मृदुता, लज्जा (सलज्जता), चंचलता न होना (१६-२) तेज, क्षमा, धैर्य, शौच, निर्वैरता, अतिमान न होना। (१६-३)हे अर्जुन! यह समस्त ही लक्षणाएँ दैवी-संपत्ति को लेकर ही जन्म को आये हुए पुरुषों के है।
यह “दैवी-संपत्ति” याने मानव के “ह्रदय-विकास” के उपयुक्त है। यह दैवी संपत्ति फ़क्त - केवल आत्मजिज्ञासु को ही उपयुक्त है। ऐसा मात्र बिलकुल नहीं तो, वह दैवी संपत्ति व्यवहारोपयोगी भी है। यह “दैवी-सम्पति” याने विशुद्ध नैतिक मुल्याएँ होने हेतु मानव के जीवन के यच्चयावत् अर्थात् सर्वांगीण-विकास के लिए किंबहुना! व्यक्ति, कुटुंब, समाज-लोकसंस्था, राज्य, राष्ट्र और एकंदर विश्व में के ‘मानव’ मात्र इन्होंके जीवन में के उपद्रव-रहित ऐसे विकासार्थ उपर्युक्त “दैवी-संपत्ति” के अस्तित्व की आवश्यकता है। यह दैवी-संपत्ति ही मानव को उसमे से भी मुमुक्षु जनों को नितांत उपयोगी है।
“दैवी-संपत्ति” और “आसुरी-संपत्ति” यह दोनों भी अनादि है। कारण, कौन से भी काल में, कमी-अधिक प्रमाण में दोनों संपत्ति के लोग अटलपनसे रहेंगे ‘ही’।इन दोनों संपत्ति में के “दैवी-संपत्ति” ही मोक्ष को कारण है। और “आसुरी-संपत्ति” यह बंध को कारण है - कारणीभूत है। इसलिए जिज्ञासुओंने “आसुरी-संपत्ति” का त्याग करना चाहिए और “दैवी-संपत्ति” का स्वीकार करके श्रीहरि - श्रीसद्गुरु कृपा संपादनद्वारां कृतार्थ होना यही अच्छा।इतना ही नहीं, किन्तु वैयक्तिक, कौटुंबिक, सामाजिक और राजकीय जीवन शुद्ध और सात्विक होने के लिए, और उसके साथ साथ ‘ही’ भ्रष्टाचार, दुराचार, अनाचार, व्यभिचार, हिंसाचार इत्यादि दुष्ट कृतियाँ बंद होने के लिए, विद्यालय में, महाविद्यालय में, विद्यापीठों में किंबहुना! पाठ्य-पुस्तकोंमे भी “दैवी-सम्पति” के और “आसुरी-संपत्ति” के कारण, स्वरूप और कार्य - फल इन्हों का "शिक्षण होना अत्यंत - नितांत आवश्यक है।
यंहाँ तक “हार्दिक-विकास” और “बौद्धिक-विकास” इन उभयोंका उदाहरणसहित लक्षणाएँ कथन की है। आजकल “लौकिक-विकास” बहुत प्रमाण में चालू है। “बौद्धिक-विकास” के एकानेक बातें आज उपलब्ध हुए है। उसमे भी विद्युत् का शोध प्रधानतासे लक्ष में - ध्यान में ले, तो विद्युत् सहाय्य से अंधार निवृत्त होकर, भरपूर सा प्रकाश लाभ होता है; विद्युत् के सहाय्य से धूप-काल में भी पंखे लगाकर शीतल वायु लिया जाता है। पूर्वकाल में आवागमन की साधनाएँ सिमित थी।परन्तु अब मोटार-सायकल इत्यादि गतिमान वाहनाएँ तयार हो बैठी है। किंबहुना! आजकल “गति यही प्रगति है” ऐसी धारना इस “यंत्र -युग” में जड़ पकड़ रही है। इस एकंदर “बौद्धिक-विकास” में विमान का शोध लगकर वह व्यवहार में प्राप्त हुआ है। विमान संशोधन से मानव अब अंतराल में - आकाश मार्ग से विहार करने लगा है। अंतराल में कुछ सिमित कालपर्यंत वास्तव्य भी करने लगा है। अब अंतराल के विहार से भी अंतर्मुख वृत्ति होकर अंतरंग में स्वस्वरूप चिंतन में प्रवृत्त होना अत्यंत आवश्यक है। अब पूर्वोक्त “हृदय-विकास” की और दुर्लक्ष करके केवल और बिलकुल केवल ही “बौद्धिक-विकास” पर भर देते रहोंगे, तो - काल प्रवाह में एक क्षण ऐसा आ जायेगा की विनाश के गर्त में पड़ने बिना अन्य-इतर कुछ भी ‘गति’ ही नहीं रहेंगी।
अब हर एक मनुष्य अपने अपने शास्त्र विहित धर्मानुसार बर्तन करने लगेगातोउस समाजमें नैतिक स्थैर्य निर्माण होकर, समाज व्यव्हार और कुल-एकंदर ही समाजरचना “सुव्यवस्थित और सुसंघटित” रह सकती है। केवल क़ायदेपर ही आधारित हुई जो समाजरचना होती है; वह “बहुधा-प्रायः” केवल “भोग-प्रधान” होने हेतु उस में अनीति, भ्रष्टाचार, बंडखोरी-बगावत, निर्माण हुए बिना नहीं रहेंगी।कायदे कितने भी “कष्टदायक-पीड़ाकारक, दक्षतापूर्वक” किये हुए होती है; “तो और तो भी” उसमें से भी “चतुर लोग” शोध शोधकर अपने बचाव का रास्ता निकलते ही है। न्यायालयें-न्यायाधीश” साक्षी-पुरावा के आभाव होने हेतु, अंध ही होने हेतु, गुन्हेगार भी न्यायालय में निर्दोष सिद्ध होते है। इसलिए समाज में अनीति को ही बढ़ावा मिलता है।
अब भारतीय समाज रचना ही मूलतः वेदानुमोदित-धर्मनियंत्रित होने हेतु अनीति का वर्तन पाप है। और वह एक सामाजिक गुनाह भी है। उस गुनाह की “शिक्षा-दंड” न्यायालय में प्राप्त नहीं होता “तो और तो भी” सर्वज्ञ सर्व शक्तिमान ईश्वर देता ही है। यह सात्विक भावना, यह धर्ममर्यादा परिपालन करने वाले समाज में अद्याप भी है। और यह सात्विक भावना जिस समाज में होती है, वह समाज अधिक और अधिकतम नितिमान होता है, ऐसा प्रतीत होता है। ऐसा अथवा इस सम जितने भी कहकर सात्विक मूल्याएँ - जीवनमूल्याएँ समाज में सुप्रतिष्ठित करने का कार्य, अपने साधु संतोंने बहुत ही कौशल्य से और आंतरिक प्रेमभाव से किया है। उस में अपने साधु संतोने यह कार्य करते समय प्रथमतः वेद प्रामाण्य, धर्मानुष्ठान, ईश्वर कारणवाद हरिभक्ति, सदाचार-सत्कृति इत्यादि “शुद्ध सात्विक मूल्यों” का पुरस्कार किया।तदनंतर व्यक्तिगत उत्कर्षहेतु ‘ही’ नहीं, तो समाज के समाजांतर्गत उदात्त मूल्यों के, सदा के स्थैर्य के लिए ही उस जीवन मूल्यों की आवश्यकता साधु संतों ने प्रतिपादन की है।
अब यदि “शाश्वत विकास” और वह ‘विकास’, ‘शाश्वत’ याने केवल ‘नामधारक’ ही न होते हुए, परिपूर्ण अन्वर्थ, यथार्थ, “अर्थवत्ता संपन्न विकास” अगर चाहिए, “तो और तो ही” ‘अध्यात्म’ का, “अध्यात्म-विद्या” का यथावत् स्वीकार किए बिना अन्य गति ही नहीं अर्थात् अगतिकत्व हेतु यह “आध्यात्मिक, त्रयकालिक सत्य” है।
श्रीमद्भगवद्गीता के अध्यायांतर्गत तेहरवे अध्याय के सातवे (७) श्लोक से लेकर ग्यारहवे (११) अर्थात् इन पांच श्लोकों में ज्ञान की लक्षणाएँ कथन की है। उन्हों में से ग्यारहवे श्लोक में “तत्वज्ञानार्थदर्शनम्” यह “ज्ञान” के अठहर लक्षण कहकर समाप्त हो जाने पश्चात इस श्लोक के उत्तरार्ध में --
“एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा ॥”
ऐसा भगवंतजी ने कथन किया है। अर्थात् “एतत् ज्ञानम् इति प्रोक्तम्” यह सब ‘ज्ञान’ की याने ज्ञानकी निश्चित फलपर्यवसायी साधनाएँ है। ऐसा कहकर यह ‘ज्ञान’ है, ऐसा उपचार-व्यवहार होता है। इस श्लोकपर के “वार्तिकात्मक विवरण” में श्री ज्ञानेश्वर महाराज लिखते है --
एवं इये उपरतीं।अज्ञानचिन्हें मागुतीं।
अमानित्वादि प्रभृती।वाखाणिलीं ॥१३-८५० ॥
जे ज्ञानपदें अठरा।केलियां येरी मोहरां।
अज्ञान या आकारा।सहजें येती ॥१३-८५१ ॥
मागां श्लोकाचेनि अर्धार्धें।ऐसें सांगितलें श्रीमुकुंदें।
ना उफराटीं इएँ ज्ञानपदें।तेंचि अज्ञान ॥१३-८५२ ॥
म्हणौनि इया वाहणीं।केली म्यां उपलवणी।
वांचूनि दुधा मेळऊनि पाणी।फार कीजे ? ॥१३-८५३ ॥
इन ओवीओंका भावार्थ ऐसा है की, ऐसे इस अंतरंग विचार से “ज्ञान लक्षणाएँ” कथन की है। प्रथम “अमानित्व” यह जिसमें प्रारंभ में ही है। ऐसे उस पद से लेकर “तत्वज्ञानार्थदर्शनम्” इस पद पर्यन्त जो भी पदाएँ है, उन्हों का व्याख्यान किया है। तत्पश्चात उन्हों के ‘विपरीत’ ही “अज्ञान लक्षणाएँ” कथन की है। (१३-८५०) कारण, ज्ञान प्रतिपादक अमानित्वादि जो अठरह पदाएँ है, वह विपरीत करने पश्चात् ‘अज्ञान’ यह आकर को सहज ही आता है। (१३-५८१) पिछले ‘अध्यात्मज्ञाननित्यत्वम्’ इस श्लोक के उत्तरार्ध के अर्ध भागने अर्थात् “अज्ञानम् यदतोन्यथा” इस चतुर्थ चरण ने भगवान श्री कृष्ण जी प्रतिपादन करते होते है। (१३-८५२) इस पद्धति से अर्थात् “ज्ञान-प्रतिपादक” समस्त ही पदाएँ उलटी याने विपरीत करके याने ज्ञान प्रतिपादक, “अमानित्वम् अदंभित्वम्” इत्यादि पदाएँ “मानित्वम्, दंभित्वम्” ऐसी अठरह भी लक्षणाएँ उलटी - विपरीत करके श्री ज्ञानेश्वर महाराज जी ने सविस्तर वर्णनात्मक ‘ओवीयाँ’ लिखी है। यों तो दुग्ध में जल मिलाकर यूँ ही बढ़ाना किस काम का? (१३-८५३)
उन अठारह अज्ञान लक्षणो में से “अध्यात्मज्ञान नित्यत्वाभाव:” इस पद के विवरणार्थ कुल मिलकर सतरह ओवीयाँ लिखी है। उन्हों में “अध्यात्म-ज्ञान” बिना इतर ‘ज्ञानाएँ’ यदि संपादित की “तो और तो भी”, वह “जात्यंधु” ‘ही’ है; ऐसा कथन किया है। चिकित्सक वाचक और भाविक जिज्ञानसुओं के लिए वह ‘ओवीयां’ और “उन्हों का भावार्थ” वह नीचे दे रहें है --
आणि आत्मा गोचरु होये।ऐसी जे विद्या आहे।
ते आइकोनि डौर वाहे।विद्वांसु जो ॥८२६ ॥
उपनिषदांकडे न वचे।योगशास्त्र न रुचे।
अध्यात्मज्ञानीं जयाचें।मनचि नाहीं ॥८२७ ॥
आत्मचर्चा एकी आथी।ऐसिये बुद्धीची भिंती।
पाडूनि जयाची मती।वोढाळ जाहली ॥८२८ ॥
कर्मकांड तरी जाणे।मुखोद्गत पुराणें।
ज्योतिषीं तो म्हणे।तैसेंचि होय ॥८२९ ॥
शिल्पीं अति निपुण।सूपकर्मींही प्रवीण।
विधि आथर्वण।हातीं आथी ॥८३० ॥
कोकीं नाहीं ठेलें।भारत करी म्हणितलें।
आगम आफाविले।मूर्त होतीं ॥८३१ ॥
नीतिजात सुझे।वैद्यकही बुझे।
काव्यनाटकीं दुजें।चतुर नाहीं ॥८३२ ॥
स्मृतींची चर्चा।दंशु जाणे गारुडियाचा।
निघंटु प्रज्ञेचा।पाइकी करी ॥८३३ ॥
पैं व्याकरणीं चोखडा।तर्कीं अतिगाढा।
परी एक आत्मज्ञानीं फुडा।जात्यंधु जो ॥८३४ ॥
तें एकवांचूनि आघवां शास्त्रीं।सिद्धांत निर्माणधात्री।
परी जळों तें मूळनक्षत्रीं।न पाहें गा ॥८३५ ॥
मोराआंगीं अशेषें।पिसें असतीं डोळसें।
परी एकली दृष्टि नसे।तैसें तें गा ॥८३६ ॥
जरी परमाणू{ए}वढें।संजीवनीमूळ जोडे।
तरी बहु काय गाडे।भरणें येरें ? ॥८३७ ॥
आयुष्येंवीण लक्षणें।सिसेंवीण अळंकरणें।
वोहरेंवीण वाधावणें।तो विटंबु गा ॥८३८ ॥
तैसें शास्त्रजात जाण।आघवेंचि अप्रमाण।
अध्यात्मज्ञानेंविण।एकलेनी ॥८३९ ॥
यालागीं अर्जुना पाहीं।अध्यात्मज्ञानाच्या ठायीं।
जया नित्यबोधु नाहीं।शास्त्रमूढा ॥८४० ॥
तया शरीर जें जालें।तें अज्ञानाचें बीं विरुढलें।
तयाचें व्युत्पन्नत्व गेलें।अज्ञानवेलीं ॥८४१ ॥
तो जें जें बोले।तें अज्ञानचि फुललें।
तयाचें पुण्य जें फळलें।तें अज्ञान गा ॥८४२ ॥
आणि अध्यात्मज्ञान कांहीं।जेणें मानिलेंचि नाहीं।
तो ज्ञानार्थु न देखे काई।हें बोलावें असें ? ॥८४३ ॥
उपर्युक्त ओवीओंका भावार्थ ऐसा है। की, और आत्मा का ब्रह्मरुपसे ज्ञान, जिस से होता है। ऐसी जो “अध्यात्म-विज्ञा” है। वह सुनकर जो यह आभासिक, तथाकथित विद्वान्, मन में तिरस्कार संधरणपूर्वक संभालता है। (८२६) उपनिषदोंके अध्ययन में बिलकुल ही प्रवृत्त नहीं होते।अध्यात्मज्ञान में तो जिसका मन बिलकुल ही नहीं लगता।“आत्म-विचार” कहकर कोई एक है। और यह “अध्यात्म-विचार” मनुष्यमात्र को हितकारक है, इस निश्चय की दीवार गिराकर जिसकी बुद्धि का झुकाव बहिर्मुख हो गया है। किसी भी-कौनसे भी, निष्फल शास्त्र की और परिणामतः दुःख पर्यवसायी अनात्म विषयों की ओर प्रवृत्त हो गयी है। (८२८) वह कर्मकांड में का “चयनान्त-श्रोत-याज्ञिकि” जानता है। अठारह पुरानाएँ मुखोद्गत है। ज्योतिषशास्त्र में तो इत्तना पारंगत-प्रवीण होता है। की जो वह ‘भविष्य’ कहेगा, “वह वैसा और वैसा ही” घटित होता है। (८२९) वास्तुकला में - शिल्पकला में तो इतना पारंगत-प्रवीण, अथर्वन वेद में कथन किए हुए “श्येन-यागादि” विधि जिनके हाथ में है। (८३०) “काम-शास्त्र” में कुछ भी जाननेका शेष नहीं है। महाभारत तो अध्ययन पूर्वक हस्तगत हुआ ही है। “मंत्र-तंत्र-प्रतिपादक”, “आग़माएँ जिसने स्वाधीन किए होते हुए, जिसे मंत्र-तंत्र के अनुष्ठान ने “फल-सिद्धि”का प्रत्यक्ष अनुभव ही प्राप्त हुया हुआ होता है। (८३१)
राजनीति, अर्थनीति, दंडनीति, समाजनीति यह “समस्तही नीतिशास्त्राएँ वह जानता है; आयुर्वेद भी जानता है। काव्यों ‘का’ और नाटकों ‘का’, रसासवाद लेने में, दूसरे विद्यार्थीयोंको-छत्राओंको उत्कृष्ट पद्धतिसे अध्यापन में, अथवा वह रचना करने में, जिनके सरीखा दूसरा ‘रसिक’ पंडित ही नहीं।(८३२) अनेक स्मृतियों में कुछ ‘विधानों’ का प्रतिपादन करने में ‘मतभेद’ हुआ, “तो और तो भी” वह देश-काल-अधिकार भेद है। फिर भी “वेद-प्रतिपादित-धर्म” प्रतिपादन करने में मात्र समस्तों ‘का’ समन्वय है। ऐसी चर्चा करने में प्रवीण, गारूडीविद्या के जो “मर्म-वर्म” जानता है। ‘निघंटु’ याने “वैदिक-शब्दकोश”, यह तो जिसके बुद्धि की चाकरी-सेवा करता है। व्याकरण में व्युत्पन्न, तर्क में प्रगाढ़-प्रकांड-पंडित; परंतु “अध्यात्म-ज्ञान”में, मात्र जो “सच-मुच” जन्मान्ध ही है। (८३४)
उस एक “अध्यात्मज्ञानबिना”, इतर सबहि शास्त्रों में सिद्धांत निर्माण करने के बाबत में मानो ‘ब्रह्मदेव’ ही; परंतु उसके उस ‘ज्ञान’ को आग लगे !! जिसे प्रत्यक्ष मातापिता ‘ही’ देखते नहीं, ऐसे उस “मूल-नक्षत्र” पर जन्म को पाए हुए पुत्र को आग लगे !! (८३५) मयुर के अंग पर होने वाली सर्व पर-पंख दिखने में नेत्रों सरीखे दिखते है; परंतु उन संबोंको फक्त “एक और एक ही” ‘दृष्टि’ उतनी मात्र नहीं होती; वैसे वह उपर्युक्त ‘शास्त्रज्ञान’ होता है। (८३६) मरनासन्न-मरणोंन्मुख मनुष्य के प्राण संरक्षित करने के लिए - बचाने के लिए, अगदीं - बिलकुल परमाणु इतनी ‘ही’, ‘संजीवनी’ वनस्पतिका जड़ मिला-प्राप्त हुआ।“तो और तो भी” वह बहुतही हुआ; परंतु तदितर गाड़ाभर-बहुतही ज्यादा वनस्पतियों का क्या लाभ किस काम का? (८३७)
एकमात्र “आयुष्यबिना” तदितर “समस्त ही समुद्रिक चिन्हाएँ उत्तम-अच्छी होना, मस्तक बिना केवल “धड़=निकायात्मक-जिस्मस्वरूप-देहाङ्ग” को अलंकार पहनाना, “वधु-वर (दूल्हा -दुल्हन)” इन्होंके सिवाय सवाद्य साग्र संगीत बारात निकलना, यह शुद्ध-केवल विटंबना-विडंबन मात्र ही है। (८३८) उस प्रमाण अकेले-एकमेवद्वितिय “अध्यात्मज्ञानबिना”, तदितर सबहि शास्त्राएँ-देहात्मवादी, भोगवादी, जड़वादी, जगत सत्यत्ववादी यह सबहि “भेदवादी” होने हेतु ‘अप्रमाण’ ही है। (८३९) इसीलिए हे अर्जुन ! ऐसा देख की, जिन्हें “अध्यात्म-शास्त्र” और “तदितर शास्त्राएँ” इन्हों में ‘सफल’ और ‘निष्फल’ शास्त्राएँ कौनसी? ऐसा विवेक नहीं होता, ऐसे जो शास्त्रमूढ़ है, उन्हों को ‘देहादि’ अनात्म पदार्थाएँ और शुद्ध “दृङ्गमात्र आत्मा” इन्हों का अचूक सद्विचार करने के विषय में बिलकुलभी निष्ठा नहीं होती।(८४०) उन्हें-उनको शरीर जो प्राप्त हुआ है। वह मानव ‘अज्ञानरूपी’ बीज ही वृद्धिंगत हुआ है, उन्हों की ‘विद्वत्ता’ वह मानव “अविद्याररूपी-लता” ही ऊँच-अतिऊँच गई है !! (८४१) वह जो जो बोलेगा-कथन करेगा, वह वह ‘बोलना’ मानो अज्ञान की पुष्पाए ही उन्मलित हुई है। उन्होंका जो पुण्य वह तत्समान अज्ञान का ही फल आया हुआ है। (८४२) और “अध्यात्म-ज्ञान” को जिसने कभी भी माना ही नहीं, उसने “ज्ञेय परमात्मा” को जाना ही नहीं; यह स्पष्ट करके - खुल्लमखुल्ला बोलकर ही - कथन करके ही दिखाना, वा दिखाना चाहिए क्या? ऐसा है क्या? - क्या है? (८४३)
“नवीन दृष्टि” अर्थात् ‘नवीन’ याने नूतन, ताज़ा, अपरिचित व्यक्ति वा वस्तु इत्यादि कों के बाबत में योजित - नियोजित करने का शब्द् है; अस्तित्व में आकर बहुत दिन बीते नहीं ऐसा याने ‘नवीन’; अपूर्व, कोरा करकरीत- ब्रँड-न्यू (brand new) ऐसे बहुत ही शब्द विद्यमान है।
‘दृष्टि’ = यह शब्द ‘दृश् ’ इस धातु पर से, “स्त्रियां क्तिन्” (३-३-९४) इस सूत्र ने भावे ‘क्तिन्’ प्रत्यय होकर ‘दृष्टि’ यह रूप हुआ है। यह ‘दृष्टि’ परमर्थता: द्रष्टा-दृश्यभाव रहित है; “तो और तो भी” कल्पित द्रष्टा में और दृश्य में अधिष्ठान रूप ने समव्याप्त है। इसलिए ‘दृष्टि’ पदका ‘अर्थ’ आश्रय-विषयरहित “केवल दृक्” याने ‘स्वरूपभूतज्ञान’ ऐसा है। वह ‘स्वरूपभूतज्ञान’, यह नित्य, निरतिशय और व्यापक स्वरूप का है।
दूसरा “वृत्ति-ज्ञान” है। अद्वैत-वेदांत-मत में - ‘माया’ अथवा ‘अंत:करण’ इन्हों का ज्ञानरूप परिणाम याने ही ‘वृत्ति’ अथवा “वृत्तिज्ञान” है ऐसा ‘वृत्ति’ शब्द का “पारिभाषिक-सांकेतिक” अर्थ है।
[ज्ञान में १) प्रमा ज्ञान और २) अप्रमा ज्ञान ऐसे दो प्रकार है। “अप्रमा-ज्ञान” में भी पुन: उसमें भी दो प्रकार है। १) ‘यथार्थ अप्रमा’ और दूसरी (२) “अयथार्थ-अप्रमा” है।उसमें भी “अयथार्थ-अप्रमा” याने ‘भ्रम’ अथवा ‘भ्रमज्ञान’ है। “प्रमाणजन्य-ज्ञान” याने “प्रमा-ज्ञान” है। और दोषजन्य ज्ञान याने “भ्रम-ज्ञान” है। जो ‘ज्ञान’ दोषजनय नहीं होता, इसलिए वह “भ्रम-ज्ञान” नहीं होता। और प्रत्यक्ष-अनुमानादि “प्रमाण-जन्य” नहीं होता, इसलिए वह “प्रमा-ज्ञान” भी नहीं होता; तो ‘दोष’ और ‘प्रमाण’ इन उभयों से भिन्न तदितर अन्य कौनसे तो भी कारण से उत्पन्न हुया हुआ होता है; इसलिए कौन से कारण से वह उत्पन्न हुआ होता है, उसका विचार ऐसा की, १) ‘जीव’ को अंत:करण वृत्तिसे होने वाला, ‘स्मृतिज्ञान’ २) सुखदु:खोंका प्रत्यक्ष-ज्ञान और ३) ईश्वर को मायावृत्तिसे होने वाला ज्ञान, ऐसी यह तीन ज्ञानाएँ व्यवहार दशा में बाधित होनेवाली नहीं है, इसलिए ही ‘यथार्थ’ है।]
“नवीन-दृष्टि” इस बाबत में ख़ुलासा करना होवे तो ‘वृत्तिप्रभाकर’ संज्ञक ग्रंथ में बहुत ही विस्तार किया है। उसका ख़ुलासा इस एक छोटेसे लघुकाय लेख में करना शक्य नहीं, यह निश्चित तौर पर सत्य ही है; “तो और तो भी” प्रस्तुत लेख के शीर्षक में - “नवीन-दृष्टि” ऐसा शब्द् आया हुआ है, इस हेतु कुछ ना कुछ - बिलकुल संक्षेप में भी ख़ुलासा करना नितांत आवश्यक है। इसलिये हम भी इस स्वरूप का किंचित सा ख़ुलासा करते है। यह “ख़ुलासा, संक्षिप्तसा ऐसा होने हेतु उससे पूर्णतया बोध-पूरता आकलन न होने हेतु उसपर भी कुछ शंकाएँ बिलकुल अटलपन से आयेंगे‘ही’ तो जिसे शंका होती है, उसने अच्छे जानकारके द्वारां यह विषय समझ लेकर ज्ञान संपन्न होना चाहिए; इतना ही कहकर” उसका संक्षिप्त में ख़ुलासा करते है --
“स्वरूपभूत-ज्ञान” से भिन्न ऐसा “मयवृत्तिरूप जो ईश्वरज्ञान है” उसका विचार ऐसा है --
ईश्वर का मायावृत्ति रूप “जो ज्ञान है”, वह प्राणीकर्म-सापेक्ष अर्थात् प्राणियोंके कर्मानुसार, बिलकुल सृष्टि के आदिकाल में, यच्चयावत् सभी पदार्थोंको विषय करने वाला, ऐसा ही उत्पन्न होता है। याने वह “ईश्वर-ज्ञान” - भूत, भविष्य और वर्तमान ऐसे तिन्हो काल में, होने वाले समस्त ही पदार्थोंका, स्थूल-सूक्ष्म, वैसे ही सामान्य विशेष भाव को विषय करने वाला - प्रकाशित करने वाला “ऐसा और ऐसा ही” होता है - होना आवश्यक है। वैसे ही वह ज्ञान प्रलय काल पर्यन्त ‘स्थायी’ याने स्थिर रहनेवाला अथवा टिकाऊ, चिरस्थिर होता है। इसलिए और इसलिए ही उस ‘ज्ञान’ को ‘एक’ और ‘नित्य’ ऐसा और ऐसा ही कहा गया है। इस ईश्वरज्ञान समान ही ‘इश्वरेच्छा’ और ‘ईश्वर-प्रयत्न’ यह भी उत्पत्तिमान होकर भी स्थायी याने प्रलय पर्यन्त ‘स्थिर’ रहनेवाली, “ऐसी और ऐसी ही” है। इसलिए ‘इश्वरेच्छा’ और ‘ईश्वर-प्रयत्न’ यह दोनो भी प्रलय काल पर्यंत रहने वाली, ऐसी “एक और एक ही” व्यक्ति है।
“ईश्वर-ज्ञान” यह एक ही एक व्यक्ति, सृष्टि के आदिकाल में सृष्टि में, के सब के सब ही पदार्थोंको, उन्होंके भूत-भविष्य और वर्तमान ऐसे तिन्हो काल में होनेवाले समस्त ही पदार्थोंके, स्थूल-सूक्ष्म, सामान्य विशेष भाव को, अर्थात् सामान्य-विशेष घटनाओंको विषय करनेवाले, “ऐसे और ऐसे ही” निर्माण होते है, ऐसा अनुपरोध ऐसा निर्बाध सिद्धांत है। अब इस सिद्धांतानुसर - सिद्धांतप्रमाण विचार करके देखा जाए, तो उस सर्वज्ञ ईश्वर के आदिकाल में - सृष्टि के आदिकाल में निर्माण होवे हुए, “सर्व विषयक ज्ञान” में सर्व स्थूल-सूक्ष्म, सामान्य-विशेष-भाव और घटनाएँ यह सब कुछ सर्वतोपरी निश्चित तय होवे हुए ही है; उसमें “नवीन-नूतन” ऐसा कुछ भी नहीं है। आप “सब ही जीव” अर्थात् उन्हों में से “मनुष्य जीव” अल्पज्ञ होने हेतु, उसे वह ‘ज्ञात’ नहीं होता। उस-उस व्यवहार की, उन्होंके फल की, “प्राप्त काल घड़ी” आ जाएगी, याने वह सब ही यथावत् औचित्यपूर्ण काल में ‘ज्ञात’ होता है और “वैसा और वैसा ही” प्रत्यक्ष में घटित भी होता है। सारांश, ‘अज्ञात’ होता है वह फ़क्त-केवल ‘ज्ञात’ ही होता है - ‘व्यक्त’ ही होता है - इतना है।
ऐसा यह “समृद्ध भारत - शाश्वत विकास की नव-नवीन दृष्टि” इस विषयका किया हुआ यह यथामति चिंतन !!
।। इति शम् ।।
* लेखक- गुरूवर्य डॉ॰ श्री॰ किसन महाराज साखरे, साधकाश्रम, आळंदी, पुणे॰
Bình luận